तन मन्दिर की करी सफाई, कर आसन, प्राणायाम
मन में तेरी मूरत ध्याई प्रभु विराजो मम उर धाम
संत कहते हैं की ह्रदय में हरि का वास है. मूलाधार में माँ शक्ति एवं सस्त्रार में सदाशिव शम्भू विराजमान हैं. जहाँ प्रभु विराजें उस मन्दिर का ध्यान रखना हमारा पुनीत कर्त्तव्य है. शरीर के मध्यम द्वारा प्रभु का अनुभव करने के लिए आवश्यक है की हम शरीर का ठीक से ध्यान रखें.
भाग – १ : शरीर द्वारा साधना (ईश्वर भक्ति) के लिए योग की जो विधि महर्षि पतंजलि ने बताई है उसके आठ अंग हैं – यम्, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धरना, ध्यान एवं समाधि. पूज्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी कहते हैं की योग के इन दो अंगों यम् एवं नियम के द्वारा हम आत्मोत्थान के साथ साथ मुख्य रूप से परमार्थ का भी कार्य करते हैं. अतः अपने जीवन में यम् एवं नियम का अभ्यास अवश्य करना चाहिए.
यम् :
यम् का आशय अपनी वृत्तियों को धर्म में स्थिर रखने से है. ये पाँच हैं:
१. अहिंसा : मन, वचन एवं कर्म द्वारा किसी को किसी प्रकार से कष्ट न देना अहिंसा है.
२. सत्य : इन्द्रियों एवं मन द्वारा ग्राह्य बातों को यथानुरूप व्यक्त करना सत्य है.
३. अस्तेय : मन, वचन और कर्म से चोरी न करना, दूसरो की चीजों का लालच नहीं करना अस्तेय है.
४. ब्रह्मचर्य : मन समेत सभी इन्द्रियों द्वारा यौनिक सुच न करना ब्रह्मचर्य है.
५. अपरिग्रह : दूसरो की दी हुयी कोई भी चीज न लेना अपरिग्रह है.
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